शिक्षा में निजीकरण का बढ़ावा



अर्चना अग्रवाल
शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और बाजारवाद आम बच्चों को शिक्षा की पहुंच से धीरे-धीरे दूर करता जा रहा है। खासकर गरीब तबका तो पूरी तरह वंचित सा हो गया है। नगरों और महानगरों में सरकारी स्कूलों के समानान्तर निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई है। इन शैक्षणिक संस्थानों में मोटी रकम लेकर बच्चों का दाखिला दिया जाता है।


इन दिनों नर्सरी क्लास में दाखिले की प्रक्रिया चल रही है। जनवरी में एडमिशन फॉर्म बिके। जिसे खरीदने के लिए अभिभावकों को कड़ाके की ठंड में लंबी लाइनों में खड़ा होना पड़ा। आवेदन फॉर्म जमा करने के बाद अब चयन सूची का इंतजार है। उसके बाद शुल्क के नाम पर अभिभावकों से मोटी रकम ली जाती है। यह शुल्क चुकाना मध्य आय वर्ग के लोगों के लिए मुश्किल होता है। निम्म आय वर्ग वाले लोग तो अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ाने के बारे में सोच नहीं पाते। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार के बच्चों को क्या बेहतर शिक्षा नसीब होगी इसका आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं।

एक ओर सरकार शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल कर चुकी है तो दूसरी ओर शिक्षा में निजीकरण का बढ़ावा दे रही है। दिन-प्रतिदन नए-नए निजी स्कूल कॉलेज खुल रहे हैं। ये स्कूल विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों द्वारा अभिभावकों को गिरफ्त में लेकर अपना धंधा चला रहे हैं।

बेशक निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा के बेहतर और आधुनिक साधन उपलब्ध हैं। जहां प्रतिभा का सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है। लेकिन इसके लिए मोटी रकम चुकानी होती है। जिसे संभ्रांत वर्ग के बच्चों के अभिभावक ही वहन कर सकते हैं। शिक्षा के निजीकरण से देश के उन प्रतिभाशाली बच्चों की प्रतिभा बर्बाद हो जाती हो जिनका जन्म गरीब परिवार में हुआ है।

देश में शिक्षा की दो पद्धति है, एक अमीरों के लिए और एक गरीबों के लिए। यह समाज में एक प्रकार का वर्ग विभेद को जन्म देता है। निजी शिक्षण संस्थाएं बड़-बड़े शॉपिंग मॉल, फाइव स्टार होटल की तरह नजर आती हैं जो अपने छात्रों को वातानुकूलित क्लास रूम, कंप्यूटर, इंटरनेट और अध्ययन के आधुनिक साधन, एक्टिविटी के नाम पर बड़े-बड़े खेल के मैदान, स्विमिंग पूल मुहैया कराती हैं। जिनमें मोटी रकम देकर धनी वर्ग के बच्चे ही दाखिला पाते हैं।

समाज का दूसरा वर्ग जो सामान्य वर्ग कहलाता है। वह स्कूल फीस के रूप में मोटी रकम वहन नहीं कर पाता है। उसके बच्चों का दाखिला ज्यादातर सरकारी स्कूलों में होता है। जिसके पास शिक्षा के बेहतर साधन और खेल के मैदान, स्विमिंग पूल तो दूर की बात है बैठने तक की उचित व्यवस्था नहीं होती। स्कूल के नाम पर जर्जर भवन उपलब्ध होता है। ऐसे स्कूलों में योग्य शिक्षक भी नहीं होते। जाहिर है देश के निर्माण में काम आने वाली प्रतिभा उचित शिक्षा के बिना देश के गली मुहल्ले में बर्बाद होती है।

शिक्षाविदों ने शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझाते हुए बताया है कि शिक्षा मानव को मुक्ति का रास्ता दिखलाती है, शिक्षा मानव को बौद्धिक और भावात्मक रूप से इतना मजबूत और दृष्टिवान बनाती है कि वह स्वयं ही आगे बढ़ने का रास्ता, ज्ञान सृजन का मार्ग और ज्ञान के सहारे अपने विकास का रास्ता ढ़ूंढ़ने के योग्य हो जाता है। लेकिन आज के समय में शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्रनिर्माण और व्यक्तित्व निर्माण की बजाय अधिक लाभ कमाना होता है।

देश को विकासशील देशों की श्रेणी से विकसित देशों की फेहरिस्त में लाने के लिए शिक्षा की गुणवत्ता को समाज के हर तबकों तक एक समान स्तर पर पहुंचाना आवश्यक है। आज वही देश विकसित है जिसने समाज के सभी तबकों को समान अवसर मुहैया कराया। हमारा पड़ोसी देश चीन जो हमसे बाद में आजाद हुआ वह आज विकसित देश ही नहीं बल्कि दुनिया की महाशक्ति की श्रेणी में खड़ा हो गया है। लेकिन हम आज भी विकासशील देश बने हुए हैं। अगर सरकार देश को सही अर्थों में विकसित बनाना चाहती है तो उसे सबसे पहले शिक्षा का निजीकरण खत्म कर जनसामान्य तक निशुल्क और एक समान शिक्षा मुहैया करानी होगी।