प्याज खरीदना आखिर किसके वश की बात है ?



प्याज खरीदना आखिर किसके वश की बात है ?प्याज खरीदना आखिर किसके वश की बात है. समय-समय पर अपनी कीमतों में आश्चर्यजनक उछाल से प्याज देशव्यापी हंगामों, बहसों, विरोध प्रदर्शनों का कारण तो बनता ही है, यह भारत में राजनीतिक परिवर्तनों का वाहक भी बना है.
जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद 1980 के आम चुनाव में प्याज एक प्रमुख मुद्दा था और एक विदेशी राजनीतिक विश्लेषक ने लिखा कि यह संसद का चुनाव नहीं, प्याज का चुनाव था. यद्यपि जनता पार्टी के अंदरूनी कलह से जनता निराश थी, लेकिन यदि प्याज महंगा नहीं होता तो उसकी उतनी बुरी दशा नहीं होती. 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के पूर्व फिर प्याज महंगा हुआ और इसका खमियाजा भाजपा सरकार को भुगतना पड़ा. यह भी एक विचित्र संयोग है कि प्याज से अभी तक केवल कांग्रेस को ही फायदा होता आया है. 2003 के चुनाव के पूर्व भी एक समय प्याज महंगा हुआ था, लेकिन कांग्रेस को उससे क्षति नहीं हुई. पता नहीं इस बार यह किसको अपने लपेटे में लेगा.
प्याज की महंगाई का आर्थिक, कारोबारी के साथ राजनीतिक पहलू भी हैं. किसी भी चीज की कीमत अपने आप और अकेले नहीं बढ़ती. हां, अन्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के अनुपात में अंतर होता है. आज का भयावह सच यह है कि महंगाई की लौ फिर तीव्र हो रही है. पिछले महीने यानी अगस्त में खाने-पीने के चीजों की महंगाई 18.18 प्रतिशत बढ़ी. यह दिसम्बर 2010 के बाद सर्वाधिक बढ़ोत्तरी है. थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित महंगाई दर 6.10 प्रतिशत बढ़ी है, जो पिछले छह महीने में सबसे ज्यादा है.
थोक महंगाई दर मूल्यांकन में करीब 14 फीसदी महत्व रखने वाली खाने-पीने की चीजों की महंगाई 18 फीसद बढ़ने से कुल महंगाई दर छह महीने में सबसे ज्यादा रही है. आंकड़ों में दिखता है कि सब्जियों और ईंधन के मूल्यों में बढ़ोत्तरी की वजह से महंगाई बढ़ी है. पिछले साल के मुकाबले सब्जियों की कीमतें 78 प्रतिशत, डीजल की 27 प्रतिशत और रसोई गैस के दाम 8 फीसद बढ़े हैं.
लेकिन प्याज तो पिछले साल के मुकाबले आश्चर्यजनक रूप से 245 फीसद महंगा हुआ. ध्यान रखिए पिछले साल की शुरुआत में प्याज 20 रुपए किलो में मिल जाता था. यह सामान्य बढ़ोत्तरी नहीं है. यहां एक-दो मंडियों के विश्लेषणों पर नजर डालना आवश्यक है. नासिक की कृषि उत्पाद विपणन समिति का कहना है कि प्याज की कम आपूर्ति के कारण त्योहारों के मौसम में कीमत रिकॉर्ड उछाल मार रही है. दिल्ली और आसपास के इलाकों के बाजारों से भी कम आवक की बात कही जा रही है. आम टिप्पणी यही है कि अगस्त में बाजार में प्याज की आवक में भारी गिरावट इस अप्रत्याशित ऊंची कीमत का कारण है.  
खाद्य मंत्री केवी थामस का कहना है कि सरकार द्वारा प्रमुख कृषि वस्तुओं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाए जाने के चलते अगस्त में खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ी है. उनके अनुसार यदि न्यूनतम मूल्य बढ़ेगा तो बाजार में दाम बढ़ेंगे ही. हालांकि इस तर्क से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता है, लेकिन प्याज के बारे में उन्होंने कहा है कि आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से आपूर्ति में सुधार होने के साथ अगले महीने की शुरुआत में प्याज के दाम में नरमी आने की संभावना है. वैसे इसकी कोई गारंटी नहीं है. खरीफ की फसल कैसी होती है यह देखना होगा. वस्तुत: किसी भी एक वस्तु का इतना मूल्य केवल प्राकृतिक कारणों से नहीं बढ़ता. जाहिर है, इसके पीछे कृत्रिम कारण भी हैं.
यह आशंका निराधार नहीं है कि इस समय प्याज की कीमतों में ऐसी उछाल के पीछे सट्टेबाजी और जमाखोरी जैसे खलनायक हो सकते हैं. यह इस बात का प्रमाण है कि महंगाई खत्म करने को प्राथमिकता घोषित करने वाली सरकारें अभी तक यह समझ ही नहीं पाई हैं कि इसके लिए किन-किन स्तरों पर निगरानी और कदम उठाने की आवश्यकता है. केवल मौद्रिक नीतियों से महंगाई पर अंकुश नहीं लग सकता यह साफ हो चुका है. जमाखोरी तो मुनाफा कमाने वालों का पुराना हथकंडा है. अगर प्रशासन सख्ती से निगरानी करे तो जमाखोरी संभव नहीं है.
यह तर्क गलत है कि प्याज का लंबे समय तक भंडारण नहीं किया जा सकता. किया जा सकता है. वैसे केंद्र सरकार ने जमाखोरी के खिलाफ कार्रवाई के लिए राज्यों को कहा है. राज्य कितनी कार्रवाई करते हैं यह अलग बात है, क्योंकि जब राजनीति और प्रशासन में निहित स्वार्थी तत्वों का प्रभाव या घुसपैठ है तो पूर्ण कार्रवाई संभव नहीं हो सकती. हम यह क्यों भूल रहे हैं कि बाजार पूंजीवाद ने वायदा कारोबार और सट्टे को आम व्यवहार बनाकर इसे और आसान कर दिया है. यह बात बार-बार उठाई जा रही है कि कम से कम आवश्यक वस्तुओं के वायदा कारोबार को पूरी तरह खत्म किया जाए, लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है. इससे साफ है कि नीति बनाने वालों के बीच भी इस कारोबार से मुनाफा कमाने वाले बैठे हैं.
तो मूल बात नीति बनाने वाले, उसे लागू करने वाले तथा निगरानी रखने वाले प्रशासनिक तंत्र की है. अगर राजनीतिक प्रतिष्ठान समझ-बूझ वाला हो, उसकी नीयत साफ हो, वह निहित स्वार्थी तत्वों के प्रभाव से रहित हो, तो सही नीतियां बनेंगी, वे लागू होंगी और प्रशासन पर भी निगरानी तथा कार्रवाई का दबाव रहेगा. कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसी स्थिति हमारे देश में नहीं है. कुछ का तर्क है कि अगर सरकार प्याज के निर्यात पर जून में रोक लगा देती तो कीमत इस तरह नहीं बढ़ती. दूसरी खाद्य वस्तुओं की कीमत पर अंकुश के लिए भी कदम उठाया जा सकता था. हम मान लेते हैं कि पूर्व आकलन में त्रुटि हो सकती है, पर जो संभव है वह तो होना चाहिए. आज का भयावह सच यह है कि पूरे देश में कृषि के स्थानीय स्वचालित और बहुत हद तक स्वावलंबी परंपरागत ढांचे लगभग ध्वस्त हो चुके हैं. यही हमारी अंत:शक्ति थी.
एक समय खेती प्रधान देश कहलाने वाले भारत में आज खेती सबसे कठिन कार्य है. विकास के नाम पर जो आधारभूत संरचनाएं खड़ी होती हैं वे अपने चरित्र में ही खेती और किसान
विरोधी होती हैं. खेती असम्मान और मजबूरी का कार्य बनकर रह गया है. अब किसान स्वावलंबी नहीं रहा. बहुतायत में लगभग गांव के हर घर में उपलब्ध परंपरागत खेती विशेषज्ञ अब विलुप्त हो चुके हैं. इतना कुछ नष्ट हो चुका है कि अब इसे पटरी पर लाने का रास्ता  नहीं दिखता. जाहिर है, अगर तत्काल मूल्य घट भी गए तो यह स्थायी निदान नहीं होगा. स्थिति और विकट होने वाली है. कृषि में परावलंबी होने का अर्थ पैदावार के मूल्यों में उसी अनुसार वृद्धि. वैसे कृत्रिम रूप से बढ़ी कीमत के मूल्य किसानों को मिलते भी नहीं.
सरकार बजट में खेती के नाम पर बैंक कर्ज बढ़ाने की घोषणा से ताली पिटवाती है, पर यह नहीं देखती कि ज्यादातर किसान कर्ज के लिए बैंक जाते ही नहीं, और यदि कर्ज लें भी तो उनके वश में बहुत कुछ नहीं. जरा सोचिए, मंदी और महंगाई से कोई एक क्षेत्र हमें बचा सकता था और है, तो वह है खेती. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) ने चालू वित्तवर्ष के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान घटाकर 5.3 प्रतिशत करते हुए भी यही कहा है कि कृषि के कारण ही ऐसा हो सकेगा, अन्यथा विकास दर और नीचे जाती.

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